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कौन है?-

"आप यहां क्यों आए थे चाचा जी?" आरव ने उन्हें दोबारा पूछा। मना किया था ना आपको?" "मैं बूढ़ा हूँ बेटे। अपनी जिंदगी जी चुका हूं अगर मुझे कुछ हो भी जाता है तो कोई फर्क नहीं पड़ता।" "ऐसा मत कहिए आप।" आरव द्रवित हो उठा।  "तुम्हारी बातें सुनने के बाद मेरी समझ में आ गया था कि इस काली हवेली में किसी ने तहखाने तक जाने का दरवाजा खोल दिया है। मैंने भारी मन से भीतर प्रवेश किया। फर्श पर बना दरवाजा खुला पड़ा था। मेरे लिए यह आश्चर्य की बात कतई नहीं थी क्योंकि दिमाग पहले से ही इस बात की कल्पना कर चुका था। मैंने अंदर जाकर देखा तो...., वह बोलते बोलते रुक गए। जैसे उनके सामने कोई खड़ा था। गौरी प्रसाद की आँखें बाहर निकल आई। हैरत के मारे उनका बुरा हाल था।  उनकी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। धुंधली सी आकृति उनकी आंखों में समा चुकी थी। उनको हाथ पकड़कर बाहर लाने वाला इंसान जिसे वे आरव समझ रहे थे वह एक पुतला था। महाराज भानु प्रताप का पुतला। गौरी प्रसाद जी ने की उम्मीद खो चुके थे। "सुनो, पुतला एकदम बोल उठा। "मैं तुम्हें मारने नहीं आया बल्कि बचा रहा हूं। तहखाने में हम उसकी मर्जी के अलावा कुछ भी नहीं कर सकते। मगर तहखाने के बाहर हम वही करते हैं जो हमें ठीक लगता है। तुम घबराओ मत जितना हो सके जल्दी घर वापस चले जाना।" गौरी प्रसाद ने आंखें बंद होने के बाद भी दूर-दूर से आती हुई पुतले की भारी आवाज सुनी थी। उनके चेहरे पर खौफ के भाव बिल्कुल नहीं थे। वह बेहोश होने की कगार पर थे कि उन्होंने वही जानी पहचानी आवाज सुनी। "अरे चाचा जी आप यहाँ? और क्या हो गया आपको?" आरव ने उन्हें आते ही गोद में उठा लिया। गौरी प्रसाद ने आसपास देखा। महाराज का पुतला गायब था। उन्होने हाथ की उंगली से तहखाने की ओर इशारा किया। वह कुछ कहना चाहते थे लेकिन उनके मुंह से एक शब्द भी न निकला। आरव चुपचाप उन्हें लेकर बाहर निकल गया। उसके दिमाग में तूफान उठा था। उसका मन उसे बार-बार एक ही सवाल कर रहा था। "तू काली हवेली पर आने में इतना लेट कैसे हो गया आरव?" एन वक्त पर आरव वहाँ ना पहुँचता तो गजब हो जाता। मोहन के पिता गौरी प्रसाद के साथ न जाने क्या हो जाता। आरव उन्हें बाहर ले आया।  "चाचा जी, उठिए चाचा जी, होश में आइए क्या हुआ था आपको? बताइए मुझे। कौन था वहाँ?" आरव लगातार उनकी पीठ को थपकी दे रहा था। काफी कोशिश के बाद गौरी प्रसाद ने अपनी आँखें खोली। खुद को काली हवेली के बाहर पाकर कुछ हद तक वे शांत हुए। कुछ देर आरव के सामने टुकुर-टकुर देखते रहे फिर उखड़ी हुई साँस में बोले।  "मुझे जल्द से जल्द घर ले चलो बेटे। यह जगह बिल्कुल ठीक नहीं है।" गौरी प्रसाद की आवाज सुनकर आरव के दिल को सुकून मिला। कम से कम मोहन के पिता ठीक तो थे। बाकी बातें उन्हें घर पर पूछ लूंगा यही सोच कर आरव उन्हें संभालता हुआ पहाड़ी उतर गया। नीचे सड़क के किनारे उसने अपना बाइक पार्क कर रखा था। सावधानी से गौरी प्रसाद को लेकर आरव अपनी बाइक के करीब पहुंच गया। "आप बाइक पर बैठ पाओगे ना चाचा जी?" "तुम्हें पकड़ कर बैठ जाऊंगा।" गौरी प्रसाद ने आरव का हाथ अपने सिर पर रखते हुए कहा। "मुझसे एक वादा करो बेटे, आज के बाद तुम कभी इस काली हवेली में नहीं जाओगे।" "मगर क्यों चाचा जी? आप तो बिना बताए चले आए थे? "मेरी हालत देखने के बाद भी तुम मुझसे यह सवाल कर रहे हो बेटे? बस तुम मुझे वचन दो। तुम कभी भी इस मनहूस हवेली में कदम नहीं रखोगे।  "आरव गौरी प्रसाद की जिद के आगे हार गया। ठीक है चाचा जी आज के बाद में इस हवेली में कदम नहीं रखूंगा। लेकिन एक बात बताइए मार्गरेटा को ढूंढने के लिए मुझे इस हवेली तक आना पड़ा तो क्या करूंगा?" "तुम सिर्फ अपनी जान की रक्षा करोगे मेरे बच्चे। इस हवेली के तहखाने में जो गया है वह जिंदा लौट कर वापस नहीं आया। मेरी किस्मत अच्छी थी कि मैं वापस आ गया। बस इतना समझ लो मौत को चकमा देकर वापस लौटा हूँ।" "ठीक है मैं आपका वचन निभाऊंगा। आइए आपको घर छोड़ देता हूँ।" कहकर आरव ने अपनी बाइक स्टार्ट कर ली गौरी प्रसाद संभलकर आरव के पीछे बैठ गए और उसे कस के पकड़ लिया। (क्रमश:)

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2 Comments

Mohammed urooj khan

16-Oct-2023 12:28 PM

👌👌👌👌

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Khushbu

14-Oct-2023 10:46 PM

Nice

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